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Friday 18 November 2016

                               १११.दिवाली और पटाखे 

मेरी कविता साहित्यपिडीया पर ,


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दिये की रौशनी में अंधेरों को भागते देखा ,
अपनी खुशियों के लिए बचपन को रुलाते देखा।
दीवाली की खुशियां होती हैं सभी के लिए,
वही कुछ बच्चों को भूख से सिसकते देखा ।
दिए तो जलाये पर आस पास देखना भूल गए ,
चंद सिक्कों के लिए बचपन को भटकते देखा।
क्या होली ,क्या दिवाली माँ बाप के प्यार से महरूम कुछ मासूम को अकेले मे बिलखते
देखा ।
जल रहा था दिल मेरा देखकर जलते हुए पटाखों को ,
लगायी थी कल ही दुत्कार सिर्फ एक रोटी के लिए ,
आज उसी धनवान को नोटों को जलाते देखा ।
मनाकर तो देखो दिवाली को एक नए अंदाज में ,
पाकर कुछ नए उपहार मासूमों को मुस्कराते देखा ।
"दिये तो जलाओ पर इतना याद रहे ,
अँधेरा नहीं जाता सिर्फ दीये जलाने से ।
क्यों न इस दिवाली पर कुछ नया कर जाएँ ,
उठाकर एक अनौखी शपथ ,
न रहे धरा पर कोई भी भूखा हमारे आस पास ,
चलो मिलकर त्यौहार का सही मतलब बता जाएँ ।।"
देखो देखो आयी न चेहरे पर कुछ मुस्कराहट ,
आज सदियों बाद त्यौहार को समझते देखा ।।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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