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Thursday 4 May 2017

                                    ५९    ,आँखें

जय श्री कृष्णा ,आज /13 /4/17 के राष्ट्रीय समाचार पत्र दैनिक हमारा मेट्रो में मेरी रचना ,

आंखें राज खोलती हैं जीवन की व्यथा का ,
उस अंतहीन सफर का जिसे कोई भी न जान सका ।
डूबती रही जिंदगी तूफानों के उतार चढ़ाव में ,
क्या इंसान दिल की सच्चाई पहचान सका ।
प्यार पाने को इस जीवन में ठोकरें खाता रहा ,
नामंजूर हुई इबादत फिर भी सिर झुकता ही रहा ।
गगरी हो मिट्टी की या हो फिर आंखों की कोर ,
छलक ही जाती है जब प्रीत की दिल मे हो घटा घनघोर
साये भी दूर होने लगें "वर्षा "जब अपने साये से छिटक कर,
भर आती है ना जाने क्यों आंखों की मधुशाला ओ कृष्णा चितचोर ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ

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