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Thursday 4 May 2017

                               ५५,दुनिया और हम 

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हैरान हो जाती हूँ दुनिया को देखकर ,
समझ में कुछ नहीं आता ।
भरते हैं जो हर पल दावा वफ़ा का ,
भुलाने में क्यों एक पल भी नहीं जाता ।
झरते हैं आँखों से अश्क कुछ इस तरह ,
जैसे बिन बादल की बरसात हो ।
रोते हैं छिप कर दीवारों से भी ,
जिन्हें महफ़िल में रोना नहीं आता ।
जख्म हैं या इलाही किसी चोट के
या कर्मों का जनाजा निकाला है ।
गैरों के साथ रहते हैं फक्र से ,
अपनों का दर्द सहा नहीं जाता ।
दरिया दिल होकर भी हाथ मलते रहे ,
जाने क्यों मरहम भी फ्री नहीं आता ।
जश्ने इश्क़ में भुला दिया खुद को ,
कुछ इस तरह जैसे दर्द से नहीं है ,
अपना जन्मों से कोई नाता ।।

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