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Sunday 4 June 2017

                                                ९२.लेख 

Mera lekh. badauneexpress par,
जिंदगी कब दगा दे जाए ,
http://www.badaunexpress.com/good-morning/a-2382/
कभी कभी दीवारें भी सांस लेती प्रतीत होती हैं ।लगता है जैसे अपने वजूद से मिलने को बेताब हैं । शांत रहता है दरिया ,लेकिन जब तूफान आता है तो अपने साथ निर्दोष लोगों को भी बहा ले जाता है । दूर कहीं भँवरे भी फूलों का मधुर पान करते हुए नजर आते हैं ।कवि की कल्पना भी साकार हो उठती है जब वो दिलों को छू जाती है । विचारों की वेदना भी हृदय को अधीर करने लगती है । एक लेखक की लेखनी भी सजीवता का अहसास कराने को व्याकुल प्रतीत होती लगती है ,फिर मानव कब और क्यों इतना कठोर बन जाता है कि उसे प्रकृति और प्रकृति प्रदत्त सारी चीजें बेकार लगने लगती है ? जिंदगी न सिर्फ पैसा है ना भूख ,इन सबसे परे हटकर भी एक दुनिया और भी है जो सिर्फ सबको ख्वाब लगती है । हम फिल्मों में पेड़ों के इर्द गिर्द नाचते हुए लोगों को देखकर खुश होते हैं क्योंकि वो हमारी भी आंतरिक इच्छा होती है । यदि कभी किसी नवविवाहित जोड़े को देखते हैं तो पुरानी स्मृति ताजा होने लगती है लेकिन जब स्वयं को देखते हैं तो एक नीरसता घर करने लगती है ।हर व्यक्ति सोचता है चलो अब तक इतना तो कर लिया ,अब थोड़े समय की बात है सब कुछ सेटल हो जाएगा, फिर के लिए समय ही समय होगा ।

“जिंदगी कब दगा दे जाए
कौन जानता है !
हसरतों को दिल मे क्यों छिपाता है ।
आज ही आज है जश्न का मौका ,
उम्र यूँ रोकर क्यों काटता है ।।
कल न बादल होंगे न होँगी बरसातें ,
बंजर इरादों का कारवां होगा ।
मुफलिसी है क्यों आज मुस्कराने में ,
क्यों अगन दिल की छिपाता है ।
भूल जा सब ,
कुछ तो खुद को भी याद रख ।
न रहेगा कल वक़्त तेरा
आज को क्यों भुलाता है ।”
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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