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Friday 18 August 2017

१३५,मेरा लेख

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जब तक इंसान बाहरी मोह में फंसा हुआ है ,आंतरिक खुशी को महसूस ही नहीं कर सकता । विषय वासना इंसान को उम्र भर स्वयं से अपरिचित ही रहने देती हैं ।स्वयं को पहचानने के लिए भोगों से मुक्त होना जरूरी है । इंसानी स्वभाव है कि वो जो कुछ भी करता है ,उसके बदले की आशा जरूर रखता है । दुनियादारी और मोह उसे खुद से दूर करते चले जाते हैं और यहीं से एक नई बीमारी जन्म लेती है अवसाद की । अवसाद यानि डिप्रेशन -hypertenstion ,high Bp । जब अपनी सारी तमन्नाओं को दबाकर हम दूसरों की इच्छाओं की तृप्ति में लग जाते हैं वहीं हमारे अंदर नकारात्मक विचार पैदा होने लगते हैं । इस संसार का एक नियम है जब तक आपकी जरूरत है सामने वाला हर व्यक्ति आपकी इज्जत करता है लेकिन जब वही जरूरत खत्म हो जाती है उस व्यक्ति को आपके अंदर कमियां ही कमियां नजर आने लगती हैं ।आप ईमानदारी के साथ अपने कर्तव्य पालन में लगे रहते हैं लेकिन स्वयं को भुलाकर खुद को असहनीय कष्ट भी देते हैं ।जरा सोचिए क्या आपके किये हुए अच्छे कार्य किसी को समझ आते हैं ? क्या हम खुद को भूलकर दूसरों को खुशी दे सकते हैं ।देखने मे तो ये बातें स्वार्थपूर्ण लगती हैं लेकिन यह भी उतना ही सत्य है जितना जिंदगी और मौत । तो क्यों न हम खुद की खुशियों को भी नजरअंदाज न करें ।कुछ समय खुद के लिए भी निकालें ।प्रतिदिन योग को अपने जीवन का हिस्सा बनाएं जिससे हम स्वयं को भी पहचान पाएं ।जब हम खुश होंगे तभी औरों को भी खुश रख सकते हैं वरना ताउम्र बीमारी और दवाओं का बोझ लेकर घूमते रहना ही हमारी मजबूरी बन जाएगी।
एक स्वस्थ व्यक्ति ही देश और समाज की उन्नति में सहायक बन सकता है ।
एक अंतिम और कड़वा सत्य तो यही है ,जो स्वयं खुश है वही दूसरों को भी खुशियां दे सकता है ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़

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