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Wednesday 6 September 2017

                                           १४४ ,संस्मरण 

संस्मरण ;
अक्सर दराजों के संदूक से
झांकती नजर आती हैं कुछ यादें
जिन्हें छिपाना मुश्किल ही नहीं 

नामुमकिन नजर आता है ।
नासूर बनकर दिल मे धड़कती हैं 
आज भी कब भूलती हैं वो कड़वी यादें
चुप चुप रहना तन्हाई में ,
अपलक सांझ को देखना
और याद करना वो गुजरा जमाना
क्या तुमको याद नहीं आती
वो सहमी सी हंसी मेरी
वो घण्टों पेंटिंग रूम में बैठकर
तस्वीरों के साथ रंगों से अठखेलियां करना ।
पेपर आने पर कुछ याद आना
नोट्स के लिए कुछ इस तरह से भोले बन जाना
जैसे एक बच्चा खिलौने की जिद करता है ।
वो कॉलेज की पुरानी भूली बिसरी यादें
आज भी दिल को बरबस रुला जाती हैं
हां कैसे भूल सकता है कोई
जीवन के सबसे सुंदर पड़ाव को
जहां होती है चाहतें सिर्फ
उड़ने की खुले आकाश में ।
दुनिया को कुछ कर दिखाने की
अनगिनत तमन्नाएं ।।

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